लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट

एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

429 पाठक हैं

'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


रमन ने माँ को जो पास से देखा तो चौंक गया। माधवी झट पर्दे के पीछे छिपकर झाँकने लगी। कामिनी सो न रही थी, बल्कि सिर नीचा किए रो रही थी।

'क्या हुआ माँ?' रमन ने उसका सिर ऊँचा करते हुए पूछा।

कामिनी चुप रही और दृष्टि जमाकर अपने बेटे की ओर देखने लगी। रमन ने फिर पूछा-''क्या बात है माँ, मन तो ठीक है? मुझे देर हो गई क्या इसलिए? आँखों में आँसू क्यों माँ?'

कामिनी ने उत्तर न दिया। वह कम्पित होंठों से अपने बेटे की ओर देखती रही। यों लग रहा था जैसे वह बहुत-कुछ कहना चाहती है, परन्तु शब्द उसके होंठों पर आकर रुक जाते हैं। रमन ने उसे दोनों बाँहों में थामते हुए फिर पूछा-'माँ? क्यों रो रही हो?

बड़ी कठिनाई से रुक-रुककर आखिर उसने धीमे स्वर में पूछा- 'आज गए थे न उनके घर?'

'हाँ, माँ परन्तु अँधेरा होने से पहले ही लौट आया। आज खाने के लिए भी न रुका।'

'अपना वचन शायद भूल गया है तू?' पलकों के आँसू पोंछते हुए वह बोली।

'नहीं माँ, परन्तु इतनी बड़ी मनाही क्यों?'

'मेरी प्रार्थना थी तुमसे केवल, मनाही कैसी!'

'और क्या? बिना कारण किसी से मिलने न देना। वे लोग हमपर प्राण देते हों और हमारे लिए उनसे मिलने पर भी प्रतिबन्ध यह केवल इसलिए कि तुम चाहती हो!'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय