ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'नहीं बेटा, फूट जाने दे इन फफोलों को। न जाने कब से ये मेरे दिल पर पक रहे हैं; मेरी साँसों को कम कर रहे हैं। हर क्षण मैं रेंगती हुई अपनी मंज़िल की ओर बढ़ रही हूँ। मैं किसी से कुछ नहीं माँगती, केवल अपनी नन्हीं-सी दुनिया चाहती हूँ। और फिर भी अतीत भयानक छाया की भाँति मेरा पीछा कर रहा है। कौन माँ है जो अपने बेटे की खुशियों को भंग करना चाहती है? परन्तु मैं क्या करूँ बेटा? तुम ही बताओ मैं क्या करूँ?'
'माँ! परन्तु इतना समय तुम चुप क्यों रही?'
'क्या करती?' स्वयं तो अग्नि में जल रही थी, पर तुम्हें इस ज्वाला में झोंक देना कहाँ तक उचित था?'
'यह ज्वाला कैसी? यह तो वास्तविकता को देखना है; उसका दृढ़तापूर्वक सामना करना है। मैं नहीं जानता था कि मुखर्जी के रूप मे मेरे गिर्द अपनी माँ के दुखों की परछाई मँडरा रही है और माधवी जिसे मैं अपनी माँ से प्रिय समझता हूँ, वास्तव में मेरी माँ की सौत है।'
पर्दे के पीछे खड़ी माधवी काँप उठी। उसके हृदय की धड़कन सहजा तेज़ हो गई।
'नहीं बेटा! यों मत कहो इसमें भला माधवी का क्या दोष? उन्होंने केवल मुझे नहीं, उस बेचारी को भी धोका दिया है।' रमन को क्रोध में आते देखकर उसे संभालते हुए कामिनी बोली।
'यह सब किसलिए?'
'इसलिए कि मैं कुरूप थी और वह सौन्दर्य के मतवाले थे। मैं मूक थी और वह चंचल बाला की खोज में थे। वह सौंदर्य और संगीत में यौवन ताल पर नाचना चाहते थे और मैं इन हाव-भावों से अपरिचित थी।'
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