ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'कैसा अवसर?'
'तुम्हारी माँ तुमको हमसे दूर कर दे, तो?'
'नहीं-नहीं, मेरी माँ ऐसी नहीं। न जाने अकेली रहकर उसके मन में क्या-क्या विचार आते हैं! जैसे भी हो, मैं उसको आपके यहाँ ले आऊँगा।'
विनोद यह सुनकर सिर से पाँव तक काँप गया और बड़े व्याकुल मन से रमन को देखने लगा जो स्वयं इसी असमंजस में था। विनोद रमन की चिन्ता को भली प्रकार समझ रहा था, परन्तु विवश और मौन था।
रमन जाने को तैयार हुआ। माधवी ने उसे रात के खाने के लिए रुकने का आग्रह किया, परन्तु विनोद कुछ न बोला। वह जानता था कि अधिक समय तक घर से रमन की अनुपस्थिति कोई नई समस्या खड़ी कर देगी। वह अभी इन्हीं विचारों में ही खोया हुआ था कि रमन कमरे से बाहर आ गया। माधवी ने विनोद से रमन को गाड़ी पर उसके घर पहुँचाने की आज्ञा ली। उसने विनोद को भी साथ चलने के लिए कहा, परन्तु वह बोला-'तुम छोड़ आओ, मैं थोड़ा आराम कर लूं।'
माधवी ने विनोद को साथ चलने के लिए अधिक ज़ोर न दिया और रमन के बार-बार मना करने पर भी उसे गाड़ी में घर तक छोड़ने चली गई। उसने सोचा, चलो इस बहाने कामिनी से मिलकर उसे अपने घर आने का निमन्त्रण दे देगी।
मोटर से उतरते हुए रमन ने कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से माधवी की ओर देखते हुए कहा-'धन्यवाद!'
'किस बात का?'
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