ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'ओह! तब से तुम्हारा कोई नहीं?' सहानुभूति प्रकट करते हुए माधवी ने कहा।
'माँ ने किसी सगे-संबंधी की सहायता लेना उचित नहीं समझा, बल्कि स्वयं हर आपत्ति का सामना करके मेरी रक्षा करती रही।'
'परन्तु तुम्हें हमारे यहाँ न आने देने का कारण?'
'शायद वह डरती है कि आप लोगों के प्रेम में मैं उसे भूल जाऊँगा। परन्तु मैं उसे क्योंकर समझाऊँ कि मुझे दुनिया में माँ से बढ़कर कोई भी प्रिय नहीं! अब आप ही बताइए कि मैं क्या करूँ?' ये शब्द कहते हुए उसने माधवी की ओर प्रार्थनापूर्वक देखा।
'घबराओ नहीं, उन्हें मैं समझा दूँगी।' आखिर यों कैसे जीवन कटेगा? यदि किसी से आपस में मिलना-जुलना न हो तो जीवन बोझ हो जाएगा।'
माधवी और रमन की बातचीत में विनोद बिल्कुल नहीं बोला। उसके मुख पर घबराहट देख माधवी ने पूछा-'आप क्यों चुप हैं?'
'ओह...मैं...' अपनी घबराहट को फीकी मुस्कान में परिवर्तित करते हुए बोले-रमन ठीक ही कहता है।'
'क्या ठीक कहता है?'
'माँ की आज्ञा को वह क्योंकर टाल सकता है?'
'परन्तु रमन को हमारे यहाँ आने-जाने में हानि क्या है?'
'यह मैं क्या जानूँ?...हाँ, बेटा रमन, यदि कभी ऐसा अवसर आ जाए तो क्या करोगे?'
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