ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'शीघ्र ही।'
'उन्हें यहाँ आने के लिए तुम्हें मनाना होगा।'
आंटी, अब आपसे क्या छिपाऊँ। वह स्वयं तो यहां क्या आएगी, वह तो मुझे ही आप लोगों से मिलने...'
'क्या?'
'आप लोगों से मिलने-जुलने से मना करती है।' रमन ने बात पूरी करते हुए उत्तर दिया।
'परन्तु...क्यों?' माधवी ने जिज्ञासावश पूछा और कनखियों से विनोद की ओर देखा जिसके मुख पर क्रोध और घबराहट की मिली-जुली भावनाएँ स्पष्ट हो रही थीं।
'यह मैं उससे नहीं पूछ सकता। आप लोग नहीं जानते, मेरी माँ अपने निश्चय की कितनी दृढ़ है। मैं उसके सामने मुँह नहीं खोल सकता।' यह कहते-कहते वह चुप हो गया। माधवी उसकी ओर देखने लगी।
कुछ देर मौन रहने के पश्चात् रमन बोला-'आप नहीं जानते मुझे माँ ने किस कष्ट से पढ़ाकर इस पद तक पहुँचाया है। मेरे पिता इंजीनियर थे, देश के बहुत बड़े इंजीनियर...उनकी शायद यही इच्छा थी कि मैं भी उन्हीं के समान बड़ा होकर इंजीनियर बनूँ।'
'तो क्या तुम्हारे पिता बचपन में ही...' माधवी ने पूछा।
'जी...बर्मा से लौटते हुए हवाई जहाज़ में अचानक आग लग जाने से उनका स्वर्गवास हो गया था।
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