लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट

एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

429 पाठक हैं

'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


माधवी रमन को देखकर अति प्रसन्न हुई। आज उसने पहले से ही मेज़ पर चाय के तीन प्याले लगा रखे थे। आज उसने यह बात रमन को बताई तो रमन ने पूछा-'आपने यह कैसे जाना कि आज मैं आने वाला हूँ?'

'मेरा मन कह रहा था।' उसने चाय बनाते हुए कहा।

'मैं समझा, आप प्रतिदिन योंही तीन प्याले लगा रखती हैं।'

'तुम क्या जानो। यहाँ तो तुम्हें देखने को आँखें तरस गईं। जब इनसे पूछा को कहने लगे कि तुम हमारे यहाँ अब आना नहीं चाहते।'

'नहीं आण्टी, ऐसी कोई बात नहीं...घर में माँ जो है!'

'उन्होंने यहाँ आने से मना कर दिया है क्या?'

'नहीं तो! बेचारी दिन-भर मेरी प्रतीक्षा में अकेली बैठी रहती है तो काम से सीधा वहीं चला जाता हूँ।'

'ओह...माँ जो ठहरी! एक दिन यहाँ ले आओ, मैं मना लूँगी।'

'क्या करूँ, कहीं आती जाती ही नहीं।'

'तो मुझे ले चलो!' माधवी ने मिठाई की प्लेट बढ़ाते हुए कहा।

'आपको...नहीं, ऐसी बात नहीं; वह किसी से मिलने-जुलने में भी कुछ कतराती है।...खैर, मैं मना लूँगा।'

'कब?'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय