ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'ओह...मैं समझा!'
'क्यों?'
'कोई रोग है।'
'दिन-भर बीमार ही रहती है। शाम को लौटता हूँ तो मुझे देख-कर यों खिल जाती है मानो मुर्झाए हुए फूल में प्राण आ गए हों।'
'माँ जो हुई। हर माँ में यही गुण होते हैं।'
'नहीं मिस्टर मुखर्जी, मेरी माँ जैसी तो और कोई न होगी।'
'माना, पर अभी अँधेरा होने में समय है...आओ चलकर...'
'नहीं, क्षमा चाहता हूँ। आप मेरी माँ को नहीं जानते। उसे यदि पता भी चल गया कि मैं...' रमन कहते-कहते रुक गया।
'क्या? रुक क्यों गए?'
'कुछ नहीं...मेरा देर से जाना ठीक नहीं।'
'ऐसा भी क्या! माधवी कल भी तुम्हारे विषय में पूछ रही थी।'
'तो...तो इतवार को...'
'नहीं रमन, तुम्हें आज ही चलना होगा।'
'विनोद की हठ के आगे रमन की एक न चली और वह विनोद के साथ हो लिया। उसे साथ ले जाने में विनोद का एक आशय यह भी था कि वह इन बातों द्वारा किसी प्रकार यह जान ले कि क्या रमन उसके जीवन के रहस्य को पा तो नहीं गया? यह जानकर उसे सांत्वना मिली कि कामिनी ने इस विषय में उससे कुछ नहीं कहा।
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