ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
कामिनी रमन को समय पर घर आते देख अपनी सफलता पर मुस्करा दी और चाय तैयार करने लगी। रमन के मुख पर एक उदासी थी, परन्तु उसने सहानुभूति प्रकट करना उचित न समझा। वह जानती थी कि समय के साथ-साथ वह स्वयं ही समझ जाएगा।
दिन तेज़ी से बीत रहे थे। काम में समय का पता न चलता। छोटा बाँध उत्तरी घाटी में तैयार हो रहा था। सीमेंट की लाखों बोरियाँ यह अजगर निगल गया, फिर भी मुँह खोले और के लिए चिल्ला रहा था। हज़ारों व्यक्ति उस पर विजय पाने के लिए दिन-रात अथक परिश्रम कर रहे थे। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि एक-न-एक दिन वे अवश्य सफल हो जाएंगे।
विनोद और रमन बांध को शीघ्र पूरा करने में जुटे हुए थे। हज़ारों हाथ एक साथ योजना की सफलता के लिए उनका साथ दे रहे थे। दोनों को एक-दूसरे का बड़ा सहारा था परन्तु मन की विवशता उन्हें निकट न आने देती।
शाम के अवकाश के बाद विनोद ने रमन को आज फिर अपने साथ चलने के लिए कहा। रमन ने यह कहकर इन्कार कर दिया- 'आज शीघ्र घर जाना है।'
'क्यों?'
'माँ का मन ठीक नहीं।'
'क्या हुआ उन्हें?'
'कुछ समझ में नहीं आता। जब कभी देर से घर लौटूँ, घबरा जाती हैं।'
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