ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'माँ!' किसी अज्ञात चोट से वह छटपटाया।
'मेरी यही आज्ञा है!'
'पर क्यों, माँ?' उन्होंने हमारा क्या बिगाड़ा है जो इतनी कठोर आज्ञा दे रही हो?'
'रमन, मैंने जो कहना था कह दिया, अब उसे मानना न मानना तुम्हारा काम है। एक ओर तुम्हारी माँ और दूसरी ओर वे लोग-तुम्हें दोनों में जो प्रिय हो, चुन लो।' दृढ़ स्वर में धीरे-धीरे कामिनी ने वह शब्द कहे और बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए चुपचाप अपने कमरे में चली गई।
दोनों ने सारी रात उलझन और विचित्र असमंजस में काटी। कामिनी रमन की बेचैनी को समझ रही थी और वह माँ के अनोखे निर्णय पर चकित था। आखिर माँ ने उस पर यह रोक क्यों लगाई? उन्होंने उनका क्या बिगाड़ा था? क्या इस कारण से कि वह उनके यहाँ से देर से आता है? आखिर क्यों?
सवेरे भी कामिनी के मुख पर वही गम्भीरता थी। उसका निश्चय अटल था। रमन ने दो-एक बार अपना प्रश्न दोहराना चाहा परन्तु साहस न कर सका। माँ के मुख पर वही गम्भीरता देखकर आश्चर्य हो रहा था।
रमन ने माँ को दिया अपना वचन पूरा करने का निर्णय कर लिया और मुखर्जी के घर जाना छोड़ दिया। विनोद ने दो-एक बार उसे अपने घर चलने के लिए कहा, परन्तु वह टाल गया और काम के तुरन्त बाद घर लौट आता।
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