ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'माधवी आण्टी के यहाँ। क्या करता! उन्होंने इतना विवश किया कि इन्कार न कर सका।'
'हाँ, अब तुम्हें माँ के हाथ की पकी हुई...'
'नहीं माँ, ऐसा न कहो। भला तुम जैसा कौन खिलाएगा मुझे? चिंता न करो, तुम्हारा पका हुआ कुछ नष्ट नहीं जाएगा, सवेरे सब समाप्त कर दूँगा।'
कामिनी चुपचाप बेटे को देखने लगी जो माँ को बातों में बहलाने का व्यर्थ प्रयत्न कर रहा था। उसकी साँस अभी तक घबराहट से रुकी हुई थी। रमन शीघ्रता से कपड़े बदलने लगा।
ज्योंही वह कपड़े उतारकर उन्हें अलमारी में रखने के लिए आया, कामिनी ने धीमे परन्तु दृढ़ स्वर में उसे बुलाया-'रमन!'
'हाँ, माँ!'
'एक बात कहूँ?'
'क्या, माँ?'
'मानेगा तू?'
'भला माँ की कही क्यों टालूँगा?'
'वचन दो!'
'दिया, कहो क्या है?'
'उनके घर जाना बन्द कर दो!'
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