ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
बाहर सड़क पर अचानक मोटर के रुकने की आवाज़ आई। हवा और बादल का इतना ज़ोर होने पर भी उसे मोटर के रुकने की ध्वनि स्पष्ट सुनाई दी। धमाके के साथ मोटर का किवाड़ बन्द हुआ और गाड़ी वापस लौट गई। शायद वह मोटर विनोद की थी जो रमन को छोड़कर लौट गया। उसने क्रोध से अपने दाँत पीसे और रमन के आने की प्रतीक्षा करने लगी। पाँव की आहट निकट होते हुए गोल कमरे तक पहुँची। बत्ती जली, उजाला हुआ और कानों में रमन की आवाज़ आई, 'माँ!...माँ!'
कामिनी चुप रही। क्रोध से अभी तक वह दाँत पीसे जा रही थी। रमन ने फिर पुकारा-'माँ, तुम कहाँ हो?' और शीघ्र पाँव उठाता हुआ रसोईघर की ओर बढ़ा।
ज्योंही उसने रसोईघर में प्रवेश किया, कामिनी की आवाज़ आई- 'रमन!'
'माँ, इतनी देर तक यहाँ क्या कर रही हो?'
'तुम्हारी प्रतीक्षा।'
'ओह...माँ।' रमन ने नीचे फर्श पर बैठी हुई कामिनी को उठाने का व्यर्थ प्रयत्न करते हुए कहा-'आज तुम्हारा बेटा तुम्हें फिर निराश कर रहा है।'
'क्यों?'
'मैं आज खाना खा आया हूँ।'
'कहाँ?'
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