ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
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रात का दूसरा पहर था। आकाश पर घनघोर घटाएँ छा रही थीं। तेज़ झोंके हवा में बसी हुई नमी को चारों ओर फैलाकर वातावरण में शीत भर रहे थे। कभी-कभी हल्की-सी फुहारें पड़ने लगती। रात बढ़ गई। अँधेरा हर वस्तु को ढाँपने लगा। साँय-साँय चलती हुई हवा घाटी में एक विचित्र ध्वनि उत्पन्न कर रही थी।
रसोई घर के किवाड़ से लगी कामिनी अभी, तक रमन की प्रतीक्षा कर रही थी। वह अभी तक घर न लौटा था। उसका भय से धड़कता हुआ हृदय हर क्षण गिर रहा था। उसकी दृष्टि दूर तक फैले हुए अँधेरे को चीरकर निष्काम लौट आती। रमन का वहाँ कोई चिह्न न था।
प्राय: रमन रात को देर से आया करता था और वह अकेली बैठी मूक पगडंडियाँ देखती रहती। पर आज उसने असाधारण देर लगा दी थी। उसे इतना भी ध्यान नहीं कि अकेले में प्रतीक्षा करते हुए उसकी माँ की क्या दशा हो रही होगी। प्रतिदिन वह उसे डाँटने का विचार करती, परन्तु उसके सम्मुख आते ही न जाने क्यों उसका क्रोध लुप्त हो जाता और वह उसे छाती से लगाकर प्यार करने लगती। जब कभी वह इतनी देर से आने का कारण पूछती, तो वह बड़े नम्र भाव में कह उठता-'ज़रा क्लब चला गया था।'
'मिस्टर मुखर्जी बलपूर्वक साथ ले गए।'
'माधवी ने पिकनिक का प्रोग्राम बनाया था।'
'माँ, तू यों ही घबरा जाती है, अभी सात ही बजे हैं।'
परन्तु आज तो रात के दस बज गए थे और उसका कोई पता न था। इतना विलम्ब उसने कभी नहीं किया। आते ही वह उसे उनके यहाँ जाने से रोक देगी। वह उसकी कोई बात न मानेगी। भाँति-भाँति के विचार उसके मस्तिष्क में आते और चले जाते।
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