ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'रुपया लहू-पसीना एक करके कमाया जाता है।'
'यह ठीक है, परन्तु किसी के उपकारों के बोझ को हल्का करने का यही मार्ग है-एक-दूसरे का आदर और प्यार करना; एक हाथ से लेना और दूसरे से देना। और माँ, तुम तो दुनिया छोड़ बैठी हो। सच कहता हूँ, केवल एक बार उनके यहाँ जाकर देखो तो, दोनों कितना प्यार करते हैं जैसे अपने सगे हों...और यदि तुम...'
'रुक क्यों गए?'
'और यदि तुम इस पर भी रोकती हो तो मैं उन्हें नहीं दूँगा। तुम्हारी आज्ञा का उल्लंघन न करूंगा। तुम्हारा मन दुखी न करूँगा, यह मुझसे न होगा।'
'मैं भला क्यों रोकूँगी तुम्हें!'
'तो...'
'हाँ-हाँ! जाओ दे आओ।'
'माँ, तुम कितनी अच्छी हो!' रमन ने बढ़कर माँ को बाँहों में ले लिया और उसे अपने गिर्द घुमाते हुए बोला, 'भगवान् सबको ऐसी माँ दे!'
कामिनी से आँसू न रुक सके और स्वयं पर अधिकार पाते हुए भी उसकी दो-चार बूँदें आँखों से टपक पड़ीं। अपने बेटे की प्रसन्न-मुद्रा को वह भंग न कर सकी और स्नेहपूर्वक उसकी ओर देखते हुए मुस्करा दी। चन्द क्षणों के लिए तो वह भूल गई कि वह क्या कर रही है। वह उस व्यक्ति के हार्दिक आनन्द के लिए साधन जोड़ रही थी जो उसके जीवन को नष्ट करने का उत्तरदायी था।
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