ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
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दिन बीतते गए। भावुकता ने विनोद और कामिनी दोनों के मस्तिष्क पर अधिकार जमा लिया। दोनों अपने-अपने अन्तस्थल की पीड़ा से रात के एकाकीपन में कराहने लगे। एक अपनी विवशता को धैर्य में बदलने का प्रयत्न कर रहा था, और दूसरा बदला हने के लिए बेचैन था।
रमन दिल्ली से माँ के लिए सोने की चूड़ियों का एक सैट खरीद लाया। नौकरी के बाद माँ के लिए उसका यह पहला उपहार था।
'यह क्या है?' माँ ने चूड़ियाँ देखते हुए पूछा।
'तुम्हारे लिए, माँ!'
'काहे को व्यर्थ खर्च किया?'
'अपना ऋण चुकाया है, माँ!'
'कैसा ऋण?'
'तुमने भी तो अपने गहने बेचकर मेरे जीवन को सींचा था।'
'पागल! बेटा भी क्या माँ पर बोझ...'
'कुछ भी समझ लो। तुम मेरे लिए वह सब न करती तो आज मैं इस पद पर कैसे पहुँच पाता?'
ममता के भर्राए हुए हृदय पर अधिकार पाते हुए कामिनी ने रमन को छाती से लगा लिया। बेटे के मन में अपने प्रति यह आदर और प्यार देखकर वह शायद प्रसन्नता से नाच उठती यदि समाज ने उसके पाँव न जकड़े होते।
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