ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'ओह...परन्तु...'
'अब आप जा सकते हैं। कामिनी ने बाहर के द्वार का पर्दा उठाते हुए विनोद को बाहर जाने का संकेत किया। विनोद उन्हीं पैरों निरुत्तर होकर लौट आया। कामिनी जानती थी कि उसका यह बर्ताव देखकर शायद उसके मन में कसक उठे और वह उस पीड़ा का अनुभव कर सके जो आजीवन कामिनी के निर्दोष हृदय में उठती रही। वह चाहती थी कि उसका बेटा उसकी आँखों के सामने रहे, परन्तु पिता के अधिकार से वंचित रहे।
एक बार माधवी ने रमन की माँ से मिलने की इच्छा प्रकट की, परन्तु इस भय से कि कहीं उनकी भेंट से दबी हुई चिंगारियाँ सुलग न पड़ें और वह उनकी लपेट में ही भस्म न हो जाए, उसने किसी बहाने उसे टाल दिया।
माधवी विनोद की चिन्ता और उसकी उलझनों को भाँप रही थी, परन्तु उसकी गहराई तक न पहुँच सकती थी। वह योजना के नये काम को ही इन उलझनों का कारण समझ रही थी और व्यर्थ प्रश्नों से उसे चिन्तित न करती। वह भरसक यही प्रयत्न करती कि किसी प्रकार उसका मन बहला रहे।
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