ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'आपका नहीं केवल मेरा रक्त। गन्दा रक्त मैंने उसकी धमनियों से निकाल दिया है। उसे मैंने अपने लहू से सींचकर परवान चढ़ाया है। आप उसपर कोई अधिकार नहीं रखते।'
'मैं कब उसे तुमसे छीनने आया हूँ? मैं तो यह चाहता हूँ कि हमारे जीवन का अन्धकारमय अतीत उसके स्वर्णमय भविष्य पर छाया न डाले।'
मैंने कह दिया न, यह मेरा निजी मुआमला है। यदि आपने उसे मुझसे छीनने का प्रयत्न किया तो मैं उसे यहाँ से ले जाऊँगी।'
'ऐसा ज़ुल्म न करना! हमारे सब निश्चय अधूरे रह जाएँगे।'
'अपने निश्चयों की कितनी पीड़ा है आपको! कभी आपने दूसरे के विषय में ऐसा सोचा है?' यह कहते हुए वह जाने लगी।
'कामिनी!' विनोद ने उसे रोकते हुए कहा।
'हूँ!' हवा में क्रोध का साँस छोड़ते हुए वह बड़बड़ाई।
'भाग्य ने सदा मुझे धोखा दिया है। कहीं ऐसा न हो कि...
'आपके निश्चय आप ही को धोखा दे जाएँ। बात को पूरा करते हुए वह बोली। क्षण-भर रुककर वह फिर कहने लगी, 'परन्तु डरिए नहीं, मैं आपको नीचा न होने दूँगी।'
'तो...?'
'आपको रमन के जीवन से दूर रहना होगा।'
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