ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'क्या आप इसका प्रमाण-पत्र देने आए हैं?'
'नहीं, तुमसे एक बलिदान की और प्रार्थना है।'
'कैसा बलिदान?'
'तुम्हें हमारे जीवन का गूढ़ रहस्य रमन से न कहना होगा।'
'क्यों?' वह कठोर स्वर में बोली। उसके होंठ अभी तक काँप रहे थे।
'हमारे अन्धकारमय जीवन की छाया उसके जीवन को ग्रहण न लगा दे!'
'यह मेरा निजी मुआमला है।'
'परन्तु उसपर मेरा भी अधिकार है।'
'आपका अधिकार?' कामिनी ने क्रोध-भरी दृष्टि से उसे देखते हुए कहा और क्षण-भर चुप रहकर बोली, वह तो उसी दिन समाप्त हो गया जब आपने किसी निर्दोष को धोखा देकर उसको आजीवन तड़पते और आँसू बहाने पर विवशकर दिया; उसे जीवित होते हुए मृत्यु का वेश पहनना पड़ा; उसे जवानी में ही आकांक्षाओं की कलियों को मसलकर मिट्टी में मिलाना पड़ा। अब आप अधिकार लेकर आए हैं? काश, जीवन की सुहावनी घड़ियों में आप भी चन्द क्षण तड़प के अनुभव कर पाते!'
'तुम क्या जानो मेरे मन की दशा! मुझे अब अधिक लज्जित न करो! मुझे अपनी कोई चिन्ता नहीं, उस बालक का विचार है जिसकी धमनियों में हम दोनों का रक्त दौड़ रहा है।'
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