ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'जो कभी तुम्हारा देवता था।'
'वह तो यह दुनिया छोड़कर कब के चले गए!' यह कहते हुए वह दूसरे कमरे में चली गई और किवाड़ों की ओट में खड़ी हो गई।
'कामिनी।'
'आप को धोखा हुआ है...आप चले जाइए!'
'तुम मेरी परीक्षा ले रही हो। इतना न तड़पाओ कि जीवन से हाथ धो लूँ।'
'मिस्टर मुखर्जी मेरा बेटा घर पर नहीं है। उसकी अनुपस्थिति में आपको बहकी-बहकी बातें नहीं करनी चाहिए। आप उसके गुरु हैं, वरना...वरना...'
'वरना क्या?'
'आपको इस आँगन में पाँव भी न रखने देती।'
'अब भी क्या गया है, चाहो तो घर से भी निकाल सकती हो।'
'यह तो आपको सोचना चाहिए।'
'क्या?' विनोद कामिनी का मार्ग रोककर खड़ा हो गया। वह चकित खड़ी उसे देखने लगी।
'किसीके घर चोरी से चले आना!' थरथराते हुए होंठों से वह कह उठी।
'कामिनी, तुमने जीवन में बहुत-कुछ न्योछावर किया है।'
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