ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
कुछ सोचकर वह उस घर की ओर बढ़ा। उसके पाँव लड़खड़ा रहे थे। यह मौन, यह अंधेरा और कामिनी की उपस्थिति उसके मन पर एक डर की छाया डाल गई। फिर भी वह अनायास उधर बढ़ता ही गया। उसने बरामदे में खड़े होकर देखा। कमरे का किवाड़ खुला था और भीतर से उजाले की किरणें बाहर आ रही थीं। साँस रोके हुए वह आगे बढ़ा। कुछ विचारकर एक बार दहलीज पर आकर वह रुक गया और फिर मन को कड़ा करके भीतर प्रवेश किया।
ज्योंही भीतर पाँव रखा, वह सहसा रुक गया-कामिनी ने उसकी तस्वीर पर फूलमाला चढ़ा रखी थी। यह देखकर उसके हृदय में एक तरंग-सी उठी, जैसे झुलसते हुए मरुस्थल की ठण्डी तपन का झोंका आकर राही को गुदगुदा जाए। वह अभी तक उसकी पूजा करती है, यह देखकर उसे विश्वास-सा हुआ और वह साहस बटोरकर आगे बढ़ा।
'कामिनी?' उसने दबे स्वर में पुकारा।
क्षण-भर के लिए वह स्थिर हो गई। जैसे ही उसने मुड़कर पीछे की ओर देखा, उसके शरीर में कम्पन भर गया। कुछ देर के लिए वह अनुमान भी न लगा सकी कि यह कल्पना थी या वास्तविकता। फिर एकाएक उसके होंठ थरथराए, 'कौन?'
'मैं... जिसकी तस्वीर पर पूजा के फूल तुम चढ़ा रही हो।'
'वह तो मेरे देवता हैं। मैंने आपको पहचाना नहीं।'
कामिनी ने सिर को आँचल से ढकते हुए मुँह फेर लिया।
'मैं हूँ...विनोद।'
'कौन?'
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