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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


'माधवी को।'

कामिनी ने एक तीखी दृष्टि बेटे पर डाली जिसके होंठ बात कहकर अभी काँप रहे थे। कुछ समय मौन रहने के पश्चात् उसने दृढ़ता से कड़े स्वर में कहा, 'नहीं!'

रमन आगे कुछ न बोल सका और अपना सामान लेकर चला गया। जाते समय वह विनोद से माधवी को उसकी माँ का ध्यान रखने के लिए कह गया।

एक शाम वह घाटी में अपने चबूतरे पर बैठा सीमेंट की चुनी उस दीवार को देख रहा था जो बस्ती के हज़ारों मज़दूरों ने मिलकर खड़ी की थी। प्रसन्नता से उसका हृदय झूमने लगा। उसके अधूरे सपने वास्तविकता का रूप धारण कर रहे थे। साँपू नदी बल खाती हुई अपना बहाव बदल रही थी।

एकाएक वह चौंक गया। नदी का बहाव तेज़ हो गया। धीरे-धीरे बहता हुआ पानी उछालें लेने लगा और नई दीवार से टकराकर बाहर फैल गया। दीवार अभी नई और कच्ची थी और पानी का तेज़ बहाव उसको तोड़ सकता था। वह झट अपने दफ्तर से निकला और उस ओर भागा।

उस दीवार के दोनों किनारे बारूद से उड़वा दिए। एक ज़ोर का धमाका हुआ और पानी का दबाव उस मार्ग से घाटी में उतर गया।

जब वह घाटी से लौटा तो सूर्य अस्त हो चुका था। अन्धकार बढ़ता जा रहा था। चलते-चलते खेतों के बीच एक छोटी-सी कोठी देखकर वह सहसा रुक गया। यह रमन का घर था।

वह चुपचाप खड़ा कुछ सोचने लगा। आज कामिनी उस घर में अकेली थी। क्यों न वह उससे मिल ले! अपने जीवन और रमन के प्यार की उससे भीख माँगे! वह अवश्य उसे क्षमा कर देगी...कहीं ऐसा न हो कि एक की हठ से तीन जीवन नष्ट हो जाएँ!

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