ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
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दिन बीतते गए। बाँध का काम ज़ोरों पर होने लगा। बस्ती में शोर-गुल, चहल-पहल बढ़ गई। प्रतिदिन ट्रकों पर लदी बड़ी-बड़ी मशीनें उतरतीं और लोग उन्हें विस्मत होकर देखते। कितनी बड़ी और विशाल थीं वे मशीनें। लोग उन मशीनों को देखकर गद्गद होते।
उत्तरी घाटी की एक पहाड़ी बारूद से उड़ा दी गई और उछलता पानी अपना बहाव उस ओर ले गया। नदी के पहले बहाव पर हज़ारों पत्थर एक साथ पड़ने लगे और बहते हुए पानी के सामने चट्टान बनकर खड़ी होने लगी। बड़ा डैम बनने से पहले इस छोटे बाँध का होना आवश्यक था। विनोद की इस स्कीम ने लोगों और सरकार को विश्वास दिला दिया कि वह तेज़ और भयानक नदी एक दिन अवश्य अधिकार में आ जाएगी।
इस बीच रमन को चन्द दिनों के लिए दिल्ली जाना पड़ा। वह माँ को अकेला जंगल में छोड़कर न जाना चाहता था, इसलिए उसने उसे माधवी के यहाँ रहने को कहा, परन्तु कामिनी ने इन्कार कर दिया। जब उसने दोबारा हठ की तो वह बोली-'मेरी चिन्ता न करो बेटा! जीवन अकेले कट गया...अब क्यों मौत से मन डरेगा?'
'माँ! कितनी बार कहा है, ऐसी बात मत करो!'
'तुम मान जाया करो...मैं तुम्हारी माधवी के यहाँ न जाऊँगी। मुझमें अकेले जीने का बल है।'
'कहो तो उसे यहाँ आ जाने को कहूँ?'
'किसे?'
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