ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
वह अपना अधिक समय उसी घाटी में व्यतीत करने लगा। दिन-रात वह रमन की सहायता से उस बाँध को पूरा करने में लगा हुआ था। समय की तेज़ गति में खोकर वह अपने पूर्व-जीवन को बिसरा देना चाहता था।
रमन की माँ आ गई और उसने उसकी सूचना विनोद को भी दे दी। उसने यह भी बताया कि माँ उसके बहुत कहने पर भी घर से नहीं निकली। विनोद ने बात टाल दी और अपना ध्यान काम में लगा दिया। उसकी गम्भीरता को रमन ने देखा परन्तु वह उसकी मानसिक दशा को न भांप सका। एक दिन माधवी ने उसे बताया कि वह रमन की माँ से मिलने गई थी तो वह खलबलाकर पूछने लगा, 'क्या कहती थी?'
'आप से क्षमा माँगती थी।'
'कैसी क्षमा?'
'अपने अतिथि को भूखा लौटना पड़ा, इस बात की।'
'ओह? और क्या कहती थी?'
'मुँह से थोड़ा बोली, परन्तु आँखों से...'
'आँखों से क्या?'
'जितनी देर मैं उसके वहाँ बैठी, बस, एकटक मुझे देखती रही, मानो मेरे मुख की पुस्तक को पढ़ रही हो।'
'क्या पढ़ा उसने? अपनी घबराहट को फीकी मुस्कान में परिवर्तित करते हुए वह बोला।
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