ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'क्या हमारे यहाँ रहने से उकता गए हो?' माधवी ने पूछा।
'नहीं तो!'
'फिर हमें क्यों छोड़ रहे हो?'
'आपको भला मैं क्यो छोड़ने लगा! आखिर कब तक...
'वह मैं जानती थी कि तुम ऐसा ही कहोगे। आखिर अपना घर अपना ही होता है और...'
'आप तो मुझे लज्जित करने लगीं। असली बात यह है, माँ यहाँ आना चाहती है।'
'ओह! कब आ रही है तुम्हारी माताजी?' माधवी के इस प्रश्न पर विनोद चौकन्ना हो गया और आश्चर्य से दोनों की ओर देखने लगा।
'जल्दी ही।' रमन ने धीरे से कहा।
'इतनी लम्बी यात्रा...'
'कलकत्ता तक अकेली आएगी, वहाँ से मैं ले आऊँगा।'
रमन चला गया परन्तु विनोद के मस्तिष्क में एक तूफान उत्पन्न कर गया। कामिनी यहाँ आ रही है... उसे अब यहाँ रहना होगा...शायद वह बेटे को जीवन का रहस्य बता दे और उनके बीच घृणा की एक दीवार खड़ी कर दे...नहीं-नहीं...!
भाँति-भाँति के भयानक विचार उसके मस्तिष्क के छाया-पट पर अपना प्रतिबिम्ब छोड़ने लगे। वह किसी अज्ञात भय से डरने लगा। अपनी भावुकता को रोकने के लिए उसने अपना दफ्तर उसी घाटी में बना लिया जहाँ बाँध बन रहा था।
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