ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
उसके मुख पर आज एक विशेष चमक थी। माधवी उसका यह परिवर्तन बड़े आश्चर्य से देख रही थी। इससे पहले उसने गंभीरता के अतिरिक्त विनोद के मुख पर कोई भाव न देखा था। वह इस रहस्य को न पा सकी।
शाम को माधवी अपनी मोटर लेकर रमन के स्वागत के लिए बस स्टैण्ड पर जा पहुँची। बस अभी-अभी आई थी और रमन सामान उतरवाने के लिए किसी कुली को खोज रहा था। माधवी को अपनी ओर आते हुए देखकर वह स्वयं मुस्कराता हुआ उसके समीप आ गया और बोला-'क्या वह नहीं आए?'
'नहीं, उनका मन ठीक न था, मुझे भेज दिया है।'
'ओह! आपने क्यों कष्ट किया? मैं स्वयं ही पहुँच जाता।'
'कष्ट कैसा? हम इस काम भी न आएँगे तो क्या...'
'अब उनका घाव कैसा है?' रमन ने मोटर में सामान जमाते हुए पूछा।
'घाव तो भर चुका है, परन्तु डॉक्टर ने अभी आराम करने को कहा है।'
जब दोनों गाड़ी में बैठकर घर जा रहे थे तो माधवी ने यों ही पूछा-'यह घटना कैसे हुई?'
'मैं स्वयं आश्चर्य में हूँ। हमारे घर अतिथि बनकर गए थे और घाव लेकर चले आए।'
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