ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
33
सवेरे पौ फटने से पहले ही कामिनी की आँख खुल गई। रमन कालीन पर आधा लेटा सो रहा था। कामिनी ने खूँटी से अपनी गर्म चादर उतारी और ओढ़कर दबे पाँव भीतर वाले कमरे में जाकर झांकने लगी-विनोद का बिस्तर खाली पड़ा था। वह घबराहट में रमन की ओर लपकी, उसे झँझोड़कर बोली-'रमन! रमन!'
'क्या है माँ?' हड़बड़ाकर उठते हुए उसने पूछा।
'तुम्हारे मुखर्जी चले गए!'
'कहाँ?' घबराहट में उठते हुए वह लपककर उस कमरे में पहुँचा जहाँ विनोद सो रहा था। बिस्तर खाली था। उसने गुसलखाने में झाँककर देखा-वहाँ कोई भी न था। वह आश्चर्य से माँ को देखते हुए बोला-'आखिर कहाँ गए? वह तो हिल भी न सकते थे!'
'मैं क्या जानूँ?'
'तो ठहरो मैं सरकारी रैस्ट हाउस में देखूँ।'
'नहीं बेटा...जाने दो!'
'क्यों?'
'न जाने कहाँ होंगे! तू क्यों व्यर्थ चिन्ता करता है?'
'चिन्ता! माँ, तुम क्या समझो! उनका जीवन मेरा जीवन है...पूरे देश का जीवन...हमारी जाति का जीवन है। यदि उन्हें कुछ हो गया तो...तो...' बात अधूरी छोड़कर वह सीढ़ियां उतर गया। कामिनी चुप खड़ी उसे देखती रही; कुछ न कह सकी।
सरकारी रैस्ट हाउस से उसे पता चला कि वह वहाँ से जा चुके हैं। वहाँ के चपरासी ने विनोद का एक पत्र उसे दिया। रमन ने झट खोलकर पत्र पढ़ना आरम्भ कर दिया। पत्र में केवल यही लिखा था-
'रमन!'
मैं वापस जा रहा हूँ। आशा है, शीघ्र भेंट होगी। मैं बिलकुल ठीक हूँ। खेद है कि तुम्हारे घर में खाना न खा सका। अच्छा उधार रहा। भूलना न!
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