ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
कामिनी ने देखा रमन की पलकों में आँसू आकर ठहर गए थे। वह चुप हो गई। वह जानती थी कि यह उसकी आवाज़ नहीं, खून की आवाज़ है जो एक-दूसरे में मिल जाने को व्याकुल है। चन्द क्षण के मौन के पश्चात् वह बोली-'रमन!'
'हाँ, माँ?'
'कहाँ रहते हैं तुम्हारे यह मुखर्जी?'
'आसाम...जहाँ की हम चाय पीते हैं।
'अकेले या और कोई भी!'
'अकेले क्यों? पत्नी भी है माधवी नाम है। माँ, इतनी सुन्दर है जैसे चाँद, और इतना अच्छा स्वभाव...'
कामिनी के मन में कसक-सी हुई और वह तड़पकर रह गई। बेटे की बात को काटते हुए बोली-'मुझसे भी अच्छी?'
'आ माँ, तुमसे भला इस दुनिया में अच्छा कौन हो सकता है!'
दोनों फिर चुप हो गए। कमरे के मौन को केवल दीवार पर लगे हुए क्लॉक की टिक-टिक ही भंग कर रही थी। कामिनी मन-ही-मन माधवी की छवि बनाने लगी जिसकी इतनी प्रशंसा उसका बेटा कर रहा था। बरसों की दबी राख को कुरेदकर आज किसी के अंगारों को बाहर निकालना आरम्भ कर दिया था। बैठे-बैठे दोनों ऊँघने लगे। विनोद को अभी तक होश न आया था।
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