ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
यह कहता हुआ वह बालकनी की ओर बढ़ा जहाँ से विनोद उन्हें छिपकर देख रहा था। बड़ी शीघ्रता से वह पिछवाड़े में उभरती लोहे की सीड़ियों पर मुड़ा। अंधेरे में उसका पाँव लोहे की चौखट पर पड़ा और वह फिसलकर लड़खड़ाता हुआ नीचे जा गिरा।
एक धमाका हुआ वातावरण में एक भयानक चीख गूँज उठी। रमन भागकर चिल्लाता हुआ लोहे की सीढ़ियों से नीचे उतर गया। कामिनी घबराकर बाहर आ गई।
जैसे ही उसने काँपती उँगलियों से बालकनी की बत्ती जलाई उसकी दृष्टि रमन पर पड़ी जो नीचे वालों के नौकर की सहायता से अपने अतिथि को उठा रहा था। डर के मारे वह उससे कुछ पूछ भी न पाई।
सीढ़ियों में आहट हुई और कुछ ही क्षणों में रमन ने बिस्तर की चादर हटाकर उसे लिटा देने का संकेत किया। विनोद का सिर लहूलुहान हो रहा था। उसकी दाढ़ी लहू से रंगी हुई थी।
'माँ, तू इनका ध्यान रख, मैं अभी डॉक्टर को लेकर आया।' यह कहकर रमन जीने से नीचे उतर गया। कामिनी ने नौकर को पैसे देकर बर्फ लाने के लिए कहा और स्वयं भागकर गुसलखाने से पानी का कटोरा भरकर ले आई। उसके मन की बेचैनी प्रतिक्षण बढ़ती चली जा रही थी। अतिथि के आते ही यह अपशकुन! अतिथि तो भगवान् का रूप होता है!
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