ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
वह तस्वीर उसी की थी। युवास्था की याद ने अँगड़ाई ली और वह घबराया। भाग्य उसे कहाँ ले आया था! रमन...एक विधवा का बेटा...यह तस्वीर पर फूलों की माला...यह जानी-पहचानी सजावट।
बाहर किसी के आने की आहट होने लगी। विनोद के मस्तिष्क ने बिजली की-सी तेज़ी से समझना आरम्भ कर दिया। आज वह कामिनी के घर आ गया था। रमन उसी का बेटा था। वह उसी के लिए खाना बना रही थी। आहट बढ़ रही थी। शायद रमन उसे सहारा देकर अपने अतिथि से उसकी भेंट करवाने के लिए ला रहा था। उसका कम्पन बढ़ गया। घबराहट से उसका साँस रुकने लगा। वह सामना होते ही पागल हो उठेगी। वह अपना मुख उसे क्योंकर दिखा सकेगी? मशीन की-सी तेज़ी से उसके मस्तिष्क में ये चोटें लगीं। वह तिलमिला उठा। वह वहाँ से भाग जाना चाहता था कि बाहर की आहट निकट आ गई।
उसने कमरे के आसपास देखा कि कोई भागने का मार्ग निकल आए। वह झट से पिछवाड़े के किवाड़ से बाहर निकल आया और बालकनी में दीवार से लगकर खड़ा हो गया।
'मिस्टर मुखर्जी! मिस्टर मुखर्जी!...गोल कमरे में से रमन की आवाज़ आई और उसके साथ ही पतले स्वर में रुकते-रुकते किसीने कहा-'नन्हें, कहाँ हैं तेरे अतिथि?'
विनोद पसीने से तर हो रहा था। वह साँस को रोके हुए बाहर अँधेरे में देख रहा था। उसने भीतर चोर-दृष्टि डाली तो सामने कामिनी खड़ी थी। वही छवि, वही भाव, वही गम्भीरता, जो समय और आयु के साथ पक्की हो चुकी थी। रमन उसे बाहर के बरामदे से लेकर लौटा और आश्चर्य से बोला, 'कहाँ गए? अभी तो...'
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