ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'और आज जो कुछ आप मुझमें देख रहे हैं, सब मेरी माँ के साहस से हुआ है।'
'तब तो वह एक महान् देवी हैं। उनके दर्शन करके मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी।'
टैक्सी रमन के घर के सामने आकर रुकी। जैसे ही विनोद ने टैक्सी वाले को पैसे देने के लिए जेब में हाथ डाला, रमन ने उसकी बाँह पकड़ ली और बोला, 'शायद आप भूल रहे हैं, आप मेरे अतिथि हैं।'
टैक्सी से नीचे उतरकर दोनों लोहे के फाटक से भीतर आए। यह एक छोटा-सा सुन्दर दो मंज़िला मकान था। बाहर एक नन्हा-सा बगीचा था। रमन ने उसे बताया कि नीचे वाली मंज़िल उन्होंने किराये पर दे रखी है और स्वयं ऊपर रह रहे हैं।
सीढ़ियाँ चढ़ते हुए विनोद की धड़कन तेज हो गई। सर्वत्र मौन था। आगे-आगे रमन और उसके पीछे विनोद-दोनों सीढ़ियाँ पार करके गोल कमरे में जा पहुँचे।
'ठहरिए...मैं अभी माँ को बुलाता हूँ।' रमन यह कहते हुए साथ वाले कमरे में चला गया और ऊँची ध्वनि में पुकारा-माँ! माँ! देखो आज हमारे घर कौन आया है!'
विनोद अपनी साँस रोक उस कमरे की सज-धज देखने लगा। हर वस्तु उसे कुछ परिचित ढंग से रखी हुई अनुभव हुई। एकाएक वह चौंक गया। उसकी दृष्टि सामने की दीवार पर लगी हुई तस्वीर पर रुक गई। उसका रोआँ-रोआँ कंपकंपा उठा।
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