ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
|
8 पाठकों को प्रिय 429 पाठक हैं |
'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
31
चलने से पहले रमन ने विनोद को अपने यहाँ खाने के लिए आमन्त्रित किया, परन्तु विनोद ने टालते हुए विवशता प्रकट की।
रमन ने कुछ रुष्ट होते हुए कहा, 'नहीं, मिस्टर मुखर्जी, यों न होगा।
'ऐसी भी क्या शीघ्रता! अब तो दिल्ली आना-जाना लगा ही रहेगा!'
'तो क्या हुआ? आप शायद वह शाम भूल गए हैं!'
'कौन-सी?'
'जब हम ब्रह्मपुत्र के किनारे खड़े आज के दिन स्वप्न देख रहे थे। जानते हैं, आपके एक ही संकेत पर मैं खिंचा हुआ आपके घर चला गया था?'
'वह तो अच्छा ही हुआ!'
'परन्तु आप मेरे निमन्त्रण को स्वीकार न करके मेरा मन तोड़ रहे हैं।'
'ओह...बच्चों की-सी बातें करने लगे! तो जैसा कहो।'
'तो आज रात...'
'परन्तु एक वचन पर!'
'क्या?'
|