ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'आप हमारे बारे में इतने ऊँचे विचार रखते हैं मैं यह न जानता था, वरना यहाँ दूसरे प्रान्तों के लोग तो हमें देखकर प्रसन्न नहीं।'
'वह क्यों?
'हर बड़े दफ्तर में, किसी धन्धे या व्यापार में हमें घुसने का वे अवसर नहीं देते। उनका विचार है कि हम कभी अपनी शक्ति बढ़ाकर उनको दबा लेंगे।'
'नहीं रमन, ऐसी कुछ बात नहीं। मैं बंगाली हूँ, परन्तु मेरी आयु का अधिक भाग पंजाबियों में बीता है। मैं उन्हें भली प्रकार जानता हूँ। देश-भर में साम्प्रदायिकता के भड़कते हुए शोले धीरे-धीरे बुझ रहे हैं और एक दिन हम सब इन छोटी-छोटी बातों को भूलकर हिन्दुस्तानी कहलाएँगे-केवल हिन्दुस्तानी! मानवता हमारा धर्म होगा और परिश्रम हमारा भगवान!'
यह कहते हुए विनोद की आवाज़ भर्रा आई। रमन नहीं जानता था कि वह भी उसी अभागी जाति का अंग है जो आज शरणार्थी बने हर एक की आँख में खटक रहे हैं। परन्तु उसके हृदयों में फौलाद है, उत्साह है, निश्चय है, विश्वास है।
विनोद को मानपूर्वक सरकारी गेस्ट हाउस में ठहराया गया। जब दूसरे अफसर चले गए तो रमन ने उसे बताया कि सरकार ने उसकी स्कीम स्वीकार कर ली है और इस विषय में वह उससे बातचीत करना चाहती है। उसे एक बोर्ड के सामने जाना पड़ेगा, जिसमें हिन्दुस्तान के प्रसिद्ध इंजीनियर होंगे।
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