ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
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दिल्ली स्टेशन पर रमन और कुछ सरकारी अफसर उसे लेने के लिए पहुँचे हुए थे। उसका अनुमान ठीक निकला। दिल्ली में वह एक अजनबी था। इन वर्षों में दिल्ली का ढाँचा ही बदल चुका था। लाखों की संख्या में लोग आ-जा रहे थे। नई विशाल इमारतें और बड़ी-बड़ी सजी-धजी दुकानें। अब की और तब की दिल्ली में ज़मीन-आसमान का अन्तर था। उसे यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि उसकी जाति में नव-जीवन के चिह्न दिखाई दे रहे थे।
'शायद दिल्ली...'
'पहली बार आया हूँ।' विनोद ने रमन की बात को काटते हुए कहा, 'नहीं रमन, पहले कई बार आ चुका हूँ, परन्तु आज का आना एक लम्बे समय के बाद है।'
'कितने वर्ष हुए?'
विनोद ने मुस्कराते हुए रमन के उत्साहपूर्ण मुख की ओर देखा और बोला, 'लगभग पन्द्रह वर्ष बाद।'
'पन्द्रह वर्ष?' रमन ने आश्चर्य से विनोद की बात दोहराई 'तब तो आप एक नया शहर देख रहे होंगे?'
'हाँ, नई आबादी, नये लोग, नई आकाँक्षाएँ और नये साथी...परन्तु एक बात वही है।'
'क्या?'
'इन लोगों का साहस। रमन, हिन्दुस्तान में शायद ही कोई जाति ऐसी हो, जो पंजाबियों जैसा साहस रखती हो। देख रहे हो, इन्होंने अपनी बरबादी का कैसे सामना किया है!'
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