ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
|
8 पाठकों को प्रिय 429 पाठक हैं |
'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
दूसरे ही दिन वह दिल्ली रवाना हो गया। अपनी अनुपस्थिति में उसने केथू को वहाँ छोड़ दिया और माधवी का मन बहलाने के लिए रजनिया को भी उसकी ससुराल से बुलवा दिया। अब उसको उन घाटियों से कोई भय न था। उसे वहाँ रहते हुए एक समय हो चुका था।
विचित्र तो उसे तब लगा जब वह कलकत्ता जाने वाली गाड़ी में सवार हुआ। लोगों की भीड़, नये-नये मुखड़े और सर्वत्र चहल-पहल, उसे यह बहुत अनोखा लग रहा था। और लगता भी क्यों न? आज वह कितने बरसों बाद आबादी की ओर लौट रहा था! इस बीच कितना परिवर्तन हो चुका था! नई सुन्दर इमारतें, साफ सुथरे और खुले स्टेशन। दिल्ली तो बिल्कुल बदल चुकी होगी। लाखों वहाँ आकर आबाद हो चुके होंगे...नई बस्तियाँ और...
एकाएक उसके मस्तिष्क पर हथौड़े की-सी चोट लगी और उसके सुहावने विचारों पर अतीत की धुन्ध छा गई। दिल्ली की आबादियों में उसे अपनी बरबादियों के चिह्न भी मिलेंगे। कामिनी और मुन्ना विवश और असहाय...वर्षों की सुलगती चिंगारियों को हृदय में दबाए हुए...और मुन्ना?' वह तो अब बड़ा होगा... नौजवान...न जाने क्या कर रहा होगा!...वह अब उसके कंधों तक पहुँच गया होगा...और कहीं वह साम्प्रदायिक दंगे की भेंट हो चुका हो, तो? यह सोचकर वह बेचैन हो गया।
|