ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'तो दिखा दीजिएगा।'
'विनोद या मुखर्जी?'
'कुछ भी हो, अब भय किस बात का? युद्ध समाप्त हो चुका है, अंग्रेज़ चले गए। पिछली बातों को कुरेदने का अब किसे अवकाश है?'
'और यदि वे यह जान गए तो?'
'तो क्या! कोई अपराध थोड़े ही किया है जो डर रहे हैं!'
'ओह...अच्छा तुम तैयारी करो, मैं कल ही चला जाऊँगा।'
कितने दिन के लिए?'
'मैं क्या जानूँ? सरकारी काम है, दिन लग भी सकते हैं। कपड़ों के दो-चार जोड़े अधिक रख देना...और हाँ...'
'क्या?'
'तुम्हारा क्या प्रबन्ध होगा?'
'क्यों?'
'इतने दिन यहाँ अकेले...कहो तो तुम्हें भी साथ ले चलूँ?'
'दिल्ली...नहीं, अभी नहीं।'
'तब कब?'
'जब वहाँ से सफल हो लौटोगे तो आपका स्वागत कौन करेगा? माधवी की यह बात सुनकर विनोद ने उसे अपनी बाँहों में कस लिया और प्यार से उसकी पीठ सहलाने लगा। जब भी वह उसे अपने आलिंगन में लेता, उसे लगता जैसे उसकी जीवन-भर की थकान एक क्षण में दूर हो गई हो।
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