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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


29


वाटसन, रमन और उसके साथियों को दिल्ली गए हुए एक महीना हो गया। उन्होंने अपनी रिपोर्ट तैयार कर ली थी। विनोद को रमन के पत्र की प्रतीक्षा थी कि उनकी स्कीम का क्या बना, परन्तु उसने वहाँ अपने सकुशल पहुँच जाने की सूचना के अतिरिक्त और कोई पत्र न लिखा। कितने ही दिन बीत गए और पत्र न आया था। वह हर समय बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करता, परन्तु व्यर्थ। कभी-कभी वह निराश हो जाता और उसे माधवी के ये शब्द याद आ जाते-'आपने-अपना परिश्रम, अपने पूरे नक्शे एक पराये व्यक्ति को दे दिये!'

आशा की रेखा धुँधली पड़ती गई। उसने चाहा कि स्वयं दिल्ली चला जाए और रमन से अपनी योजना के नक्शे वापस ले आए, परन्तु वह ऐसा न कर सका। कभी उसे ऐसा विचार आता कि कहीं रमन वाटसन से मिलकर उसकी स्कीम का लाभ न उठा रहा हो, परन्तु फिर रमन की बातें याद कर उसे अपने इस बेतुके विचार पर हँसी आ जाती।

जैसे हर अँधकार में उजाले की किरणें छिपी होती हैं, उसकी प्रतीक्षा की घड़ियों में भी एक किरण उत्पन्न हुई। यह वह पत्र था जो रमन ने विनोद को लिखा था। वह उसकी स्कीम को सरकार के सामने रखने में सफल हो गया था।

इस पत्र के दो ही दिन पश्चात् विनोद का एक्सप्रेस तार आया। उसे तुरन्त दिल्ली बुलाया था। आने का कारण न लिखा था। उसने यह तार माधवी को दिखाया। तार सरकारी था। अवश्य उसके वहाँ जाने से कुछ अच्छा परिणाम ही निकलेगा। संभव है कि यह तार उसके जीवन में कोई असाधारण परिवर्तन कर दे!' 'परन्तु यह क्योंकर सम्भव है?'

'क्या?'

'मेरी भेंट...जब वह मुझसे इंजीनियर का प्रमाण-पत्र माँगेंगे तो?'

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