ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
विनोद के होंठों पर सांत्वना की हल्की-सी मुस्कान खिल आई। उसके दबे हुए हृदय से कोई बोझ हट गया और सोई हुई आकांक्षाएँ उड़ानें लेने लगीं। उसे अपनी स्कीम पर पूरा भरोसा था। एक-न-एक दिन वह अवश्य सफल होगा।
रात के खाने के पश्चात् जब रमन वापस लौट गया तो माधवी ने पहला प्रश्न किया-'आपने यह क्या किया?'
'क्या?'
'अपना परिश्रम, अपने सब नक्शे एक पराये व्यक्ति को दे दिए!'
'माधवी, यह कोई पराया नहीं, यह नये भारत की युवा आकांक्षाओं का रूप है। मुझे अपने उद्देश्य की पूर्ति चाहिए, नाम नहीं।'
'आप ठीक समझते हैं...मैं क्या कहूँ!'
रमन चला गया परन्तु विनोद को रात-भर नींद नहीं आई। उसे यों अनुभव हो रहा था मानो उसके जीवन के सूखे हुए उद्यान में अचानक वसंत आ गया हो और आशाओं के कुम्हलाए हुई फूलों में नवरस का संचार हो रहा है।
अगले दिन से वहाँ रमन का आना-जाना आरम्भ हो गया। दोनों बैठे इस स्कीम पर बातचीत करते। विनोद ने देखा कि रमन एक असाधारण योग्यता का व्यक्ति है। कहीं-कहीं तो उसने विनोद के अनुभवों को भी पछाड़ दिया। रमन भी जानता था कि विनोद की सहायता से वह एक दिन अवश्य सफल हो जाएगा।
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