ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'मैंने इससे इन्कार कब किया है?'
'यों नहीं...आपको मेरे साथ दिल्ली चलना पड़ेगा।
'वह क्यों?'
'योजना और विकास-मंत्री से भेंट करने। मैं आपकी सहायता करूँगा। जब हमारे देश में इतने योग्य इंजीनियर हैं तो हमें विदेशों से भीख माँगने और अपना धन लुटाने की क्या आवश्यकता है?'
'नहीं मिस्टर रमन, मैं जो भी हूँ वह मैं स्वयं जानता हूँ। मेरे जीवन की दोपहर ढल रही है और तुमने अभी जीवन की सुनहरी घड़ियों में पाँव रखा है।'
'ठीक है, आप अनुभवी सही, परन्तु मेरा अनुमान गलत नहीं।'
'तो एक काम करो!'
'क्या?'
'इस बहुमूल्य योजना का लाभ उठाओ और इसे मेरी ओर से सरकार तक पहुँचाओ।'
'और आप?'
'मैं उस दिन की प्रतीक्षा करूँगा जब तुम मेरे सपनों को वास्तविकता में बदल दोगे।'
'सच! पर मिस्टर मुखर्जी, मैं अभी नया हूँ, कोई अनुभव नहीं; कल की बात कह नहीं सकता, परन्तु वचन देता हूँ कि आपके सपनों को वास्तविकता में बदलने में अपनी ओर से पूरा प्रयत्न करूँगा।'
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