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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


रमन उसकी योजना और नक्शों को देखकर चकित रह गया। उसे विश्वास हो गया कि विनोद की बताई हुई योजना द्वारा उनकी लागत आधी रह जाती है। जहाँ वाटसन बाँध बाँधना चाहता है, वहाँ समय और लागत के अतिरिक्त योजना के विफल हो जाने का भय है। डैम बनते-बनते यदि नदी ने अपना मार्ग बदल दिया तो सब किए-कराए पर पानी फिर जाएगा।

विनोद ने उसे बताया कि वह नदी का ज़ोर पिछली घाटियों में छोटे-छोटे बाँध बाँधकर कम करता आएगा और फिर उत्तरी घाटी में सब पानी को एकत्र कर देगा जहाँ दोनों ओर पहाड हैं। इसमें लागत आधी रह जाएगी और बाँध टूटने का भी भय नहीं रहेगा क्योंकि नदी का ज़ोर ऊपर वाली घाटियों में ही कम हो चुकेगा।

जब उसने रमन को बताया कि वह कभी बहुत बड़ा इंजीनियर था तो उसने झट प्रश्न किया-'तो आपने यह मार्ग छोड़ क्यों दिया?'

'हूँ?' अचानक वह चौंक गया और धैर्य से काम लेते हुए बोला, 'मन ऊब गया था।'

'वह क्यों? आप तो अभी तक...'

'काम से नहीं विदेशियों की अधीनता से।'

'अब तो देश स्वतन्त्र हो चुका है!'

'परन्तु मैं नहीं। मिस्टर रमन, मैं कुछ ऐसे बन्धनों में बँधा हुआ हूँ कि ये घाटियाँ छोड़ने को मन नहीं चाहता। तुम जानते हो, अब इस शरीर में बल नहीं।'

'परन्तु मन की शक्ति अभी शेष है-नहीं मिस्टर मुखर्जी, आपको मेरा साथ देना होगा।'

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