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ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट

एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


27


देश स्वतन्त्र हो गया था। केथू ने कम्पनी में नौकरी कर ली। कम्पनी के नियमों में अब वह पहले की-सी कठोरता न थी। वहाँ के कितने ही मज़दूर इस बीच में ईसाई बन चुके थे।

माधवी और विनोद की सहायता से केथू ने रजनिया का ब्याह कर दिया। कभी-कभी कम्पनी के काम-काज से अवकाश पाकर वह इन लोगों से मिलने चला आता। बातों-बातों में केथू ने उसे कई बार वहाँ के चुनाव में खड़े होने की प्रार्थना की। वह उसको वहाँ के सब वोट दिलवा सकता था ताकि उसके नेतृत्व में वहाँ के सार्वजनिक कार्य भली प्रकार होंगे...परन्तु विनोद न माना। अब उसे इन बातों से कोई लगाव न था।

इन झंझटों से विमुख अपने लॉन में बैठा वह कोई पुस्तक पढ़ रहा था। बार-बार उसकी दृष्टि सामने फैले रेत के टीलों पर पड़ती। यहीं पर उसके चाय के खेत थे। इन खेतों की हरियाली उसके नयनों को ठंडक पहुँचाती थी। चाय की कोमल पत्तियाँ चुनते हुए आसामी महिलाओं के गीतों कई गुनगुनाहट वातावरण मे मधुर रागिनी भर देती; और सहसा मधुर कल्पना में कठोर वास्तविकता की ठोकर लगी और कल्पना छिन्न-भिन्न हो गई। सामने नागिन की भाँति फुँफकारती ब्रह्मपुत्र ने मानो उसे डस लिया हो। उसके हृदय में एक पीड़ा जागृत हुई। इसी नदी ने उसकी प्रसन्नताओं को अपने आँचल में छिपा लिया था। उसने कम्पनी से माधवी की धरती ली थी और वह धरती इस निर्दया ने क्षण-भर में छीन ली। उसकी आशाओं के अंकुर फूटे भी न थे कि विनाश को प्राप्त हो गए।

बाहर का फाटक खुला और केथू ने भीतर प्रवेश किया। विनोद ने दृष्टि उठाकर उधर देखा-शीघ्र चलता हुआ केथू उसके समीप आया और बोला-'बाबूजी, नमस्कार!'

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