ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
विनोद उसकी बात समझ गया और चुपचाप उसके साथ हो लिया। वह जानता था कि माधवी उसकी चिंता को समाप्त करना चाहती है। मुस्कराता हुआ वह उसके साथ ही हो लिया। कभी-कभी उसका भोलापन देखकर वह सहसा ठिठक जाता जैसे वह अपना रहस्य उससे छिपाकर उसपर कोई अत्याचार कर रहा हो। दोनों एक-दूसरे के हाथ में हाथ दिए ठण्डी हवा के झोंकों पर उसी दिशा में चलने लगे, जिधर उन विदेशियों की टोली जा रही थी, जो संसार के सबसे ऊँचे शिखर को विजय करने के उत्साह में बढ़ते चले जा रहे थे।
जीवन की कितनी ही घड़ियाँ कट गईं। युवामय घाटी में प्रौढ़ विचारों की समतल भूमि आ चुकी थी। दुनिया वालों से दूर, साँसारिक झंझटों से मुक्त और इन भयप्रद सूचनाओं से अज्ञात वे अपनी छोटी-सी कोठी में दिन व्यतीत कर रहे थे। वही झील, वही घाटी, वही झरने और वही व्यक्ति, परन्तु विनोद को अब इनमें कोई विशेष रुचि न थी। उसे माधवी के संग व्यतीत की हुई चन्द घड़ियों के अतिरिक्त कुछ न चाहिए था। वह अपना बीता जीवन और उससे सम्बन्धित हर वस्तु को भूल चुका था।
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