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ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट

एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


'तो क्या मैं झठ कहती हूँ?'

'हाँ, खाओ मेँरी सौगन्ध!'

'सौगन्ध क्यों देते हो? बात ही क्या थी!'

'हाँ, तो क्या सोच रही थीं?'
'यही कि...'

'हाँ...कहो-कहो!'

'आज नन्हा होता...'

'तो माउंट एवरेस्ट विजय कर लेता...क्यों, ठीक है न?' विनोद ने रुकते हुए वाक्य पूरा किया और अनायास हँसने लगा। अचानक माधवी की भीगी हुई आँखों को देखकर उसने अपनी हँसी रोक ली। विनोद को यों अनुभव हुआ जैसे यह व्यर्थ की हँसी उसके लिए विष हो रही हो। माधवी ने मुँह मोड़ते हुए विनोद से केवल इतना ही कहा-'बड़ा होकर अपने बाप का सहारा बन जाता!' यह कहकर वह मौन खिड़की के बाहर देखने लगी। विनोद चुप रहा और उसके समीप आकर उसके हृदय की धड़कनें सुनने लगा। इन धड़कनों में आज युवा आकांक्षाओं का शोर न था, बल्कि एक मधुर गुनगुनाहट थी-ममतामयी, जो हर माँ के हृदय में होती है। आज वह बच्चे के अभाव को अनुभव कर रही थी।

विनोद ने उसकी कल्पना को ठेस लगाना उचित न समझा और चुपके से बाहर वाले बरामदे में घोड़े से खेलने लगा। एकाएक उसके सामने माधवी के स्थान पर कामिनी की तस्वीर आ गई। उसके मन में भी ऐसी ही ममता के झरने फूट रहे होंगे, जब उसने प्रथम बार उसको यह सूचना दी कि वह उसके बच्चे की माँ बनने वाली है।

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