ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
26
हिमाचल की घाटी में यह एक नन्हा-सा अकेला डाकबँगला था। जहाँ तक दृष्टि जाती थी उन पाँच-सात व्यक्तियों के अतिरिक्त वहाँ कोई न था। हिमपूर्ण ऊँचे पहाड़ दिखाई देते थे। डाकबँगले के बाहर बरामदे में उनके घोड़े बँधे हुए थे। दोनों दूर उन पहाड़ों पर दृष्टि टिकाए इस दश्य को देख रहे थे। दोनों चुप और विचार-मग्न थे-शायद बीते दिनों की स्मृति और भविष्य की कल्पना में। एकाएक माधवी के मुख पर एक विशेष गम्भीरता भाँपते हुए विनोद बोला-'माधवी!'
'हूँ!'
'किस सोच में डूबी हो?'
'सुनिएगा?'
'अवश्य!'
'ऊँहूँ!' विनोद का उत्साह देखते हुए माधवी परे हट गई। विनोद थोड़ा बढ़कर उसके सामने जा खड़ा हुआ और मार्ग रोकते हुए बोला-'मन की बात सुने बिना न जाने दूँगा।'
'कुछ भी तो नहीं!'
'कुछ तो है!'
'ओह...यह सोच रही थी कि क्यों न हम भी उन लोगों की भाँति माउंट एवरेस्ट पर जा पहुँचें!'
'ऊँहूँ...यह झूठी बात कहकर तुम अपने मन की बात नहीं छिपा सकतीं।'
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