ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'मैं तो समझती हूँ...यह साँस तो मेरे मर जाने पर भी चलती रहेगी।'
'माधवी,' विनोद ने उसके होंठों पर हाथ रख दिया और बोला, 'यह आज तुम कैसी बातें कर रही हो?'
'जो मुझे न करनी चाहिए, परन्तु मैं चुप नहीं रह सकती।'
'पर तुम्हें मना किसने किया है?'
'आपके इन विचारों को जो एक वर्ष से आपको मुझसे दूर ले गए हैं। जिन्होंने हमारी जवानी की शीतल छाँव में अँगारे भर दिए हैं। आप ही सोचिए, मेरे भी हृदय है, मेरी भी इच्छाएँ हैं, आशाएँ हैं। इस नदी की भाँति मेरे हृदय में भी एक बाढ़ है जो मार्ग बदलकर जीवन में चिन्ताएँ भर रही है।'
'माधवी...मेरी माधवी।' विनोद ने माधवी को प्यार से अपनी बाँहों में लेते हुए कहा। दबी हुई आशाएँ फूट पड़ी और उसकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी।
विनोद ने उसे अपने सीने से लगा लिया और समझाने का प्रयत्न करने लगा। रोते-रोते उसकी हिचकी बँध गई। उसने समस्त शिकायतें, अपूर्ण आशाएँ उसके सीने पर भाप बनाकर छोड़ दीं।
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