ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
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हिन्दुस्तान स्वतन्त्र हो गया। देश का बँटवारा हो चुका था। अंग्रेज़ों ने कलेजे पर पत्थर रखकर राज्य की बागडोर दो जातियों को सौंप दी। देश के कोने-कोने में कत्ल, खून और दंगे-फसाद से हाहाकार मच गया। नये राज्य के नये कायकर्ता पुराने ढाँचे पर देश का नव-निर्माण करने में जुट गए।
लाहौर में खूनखराबी, लड़ाई-झगड़े की सूचनाएँ पढ़कर विनोद का हृदय बेचैन हो उठा। कभी-कभी वह सपनों में अपने अबोध बच्चे को कामिनी की उँगली पकड़कर शरणार्थियों की टोलियों में बेसहारा आते हुए देखता-कहीं किसी ने दोनों को मार डाला, तो...तो क्या होगा? क्या वह उनकी रक्षा का उत्तरदायित्व नहीं? यह विचार आते ही वह बेचैन हो उठता और अपने अतीत की बातें भुलाने का प्रयत्न करता। माधवी उसकी व्याकुलता को न समझते हुए उसके पास आ जाती और अपने सीने में उसका सिर छुपाकर उसे बालकों की भाँति बहलाने लगती।
माधवी ने देखा कि पहले बस्ती के मज़दूरों ने और फिर इस बाढ़ ने उसे गम्भीर बनाकर उसके जीवन की दिशा ही बदल दी थी। वह यह न चाहती थी कि वह इन धुनों में उसे और दुनिया को भूलकर समय से पहले वृद्ध हो जाए। इसी पर एक दिन वह विनोद से झगड़ा कर बैठी-'आखिर यह कब तक चलेगा?'
'क्या?'
'आपकी ये कल्पनाएँ, ये सपने, जिन्होंने समय से पहले ही आपको बूढ़ा कर दिया।'
'ये तो मेरे जीवन की साँसों के साथ चलेंगे।'
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