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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


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बाढ़ उतर गई। नदी अपना मार्ग छोड़कर मन्द गति से बह रही थी। विनोद प्रभात होते ही उठकर दूर तक नदी के किनारे किसी ऐसे स्थान की खोज में चला जाता जहाँ यह बाँध बाँधा जा सकता था। वह अकेला ही इस संग्राम में कूद पडा था।

कभी-कभी माधवी भी उसके संग निकल जाती और वे दोनों ऊँचे-नीचे, टेढ़े-मेढ़े मार्गों की खाक छानकर साँझ को लौट आते। प्रतिदिन अब उनका यही कार्य था। केथू और रजनिया दिन-भर उनके घर की रखवाली करते। वे आश्चर्य में थे कि उनका स्वामी किस धुन में लगा हुआ है।

आसाम सरकार के कार्यालय में उसने मंत्री से भेंट की और अपने विचारों को मानचित्र के रूप में प्रस्तुत किया। वह एशिया की सबसे बड़ी तूफानी नदी पर बाँध बाँधना चाहता था, जो देश की उन्नति के लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण पग था।

परन्तु उसकी किसीने न सुनी। अंग्रेज़ अफ़सरों ने यही निर्णय किया कि यह असम्भव है और इस योजना को हाथ में लिया भी जाए तो करोडों रुपयों की आवश्यकता होगी जिसके लिए वे सहमत न थे। युद्ध ने पहले ही सरकार को खोखला कर रखा था और अब वे लोगों की व्यर्थ योजनाओं को कार्यान्वित न कर सकते थे।

उसे वहाँ से निराश लौटना पड़ा। वह जानता था कि यह विदेशी सरकार इस देश की उन्नति नहीं चाहती। वह नहीं चाहती कि इनका व्यापार बढ़े, इनकी दरिद्रता दूर हो और ये दासता की कड़ियाँ तोड़कर स्वतंत्र हो जाएँ। वह तो यही चाहती है कि निर्धनता के कीड़े हमसे चिपके रहें।

विनोद का यह प्रयत्न तो सफल न हुआ परन्तु उसने आशा न छोड़ी और अपनी योजना में और भी दृढ़ हो गया। वह एक ऐसा नक्शा तैयार करने में जुट गया जिससे यह कम खर्च में ब्रह्मपुत्र पर बाँध बाँधा जा सके।

जीवन चलता रहा। बसंत पतझड़ में और पतझड़ बसंत में परिवर्तित होता रहा। श्वासों के सरगम पर धड़कनों की ताल चलती रही। तीन वर्ष चुटकियों में बीत गए। कितने ही परिवर्तन हुए, परन्तु विनोद के विचार चट्टान की भाँति अटल रहे। इस बीच में उसने दो-एक बार सरकार का ध्यान फिर अपनी योजना की ओर आकर्षित करने का प्रयत्न किया, परन्तु परिणाम कुछ न निकला।

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