ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
उसने दूसरे दिन गम्भीरतापूर्वक योजना बनानी आरम्भ कर दी। दिन-भर वह एक कुर्सी पर बैठा कागज़ पर रेखाएँ खींचता रहा, मानचित्र बनाता रहा। माधवी ने दो-एक बार उससे कुछ पूछा भी, परन्तु उसने यह कहकर टाल दिया-'एक स्वप्न देख रहा हूँ...पूरा हो गया तो बताऊँगा।'
माधवी भी आश्चर्य में थी कि ऐसा कौन-सा स्वप्न है जिसकी धुन में वह सब-कुछ भूल गया है? उसे खाने-पीने की सुध न थी। वह उसके सुन्दर स्वप्नों को भंग करना चाहती थी और बड़े समय
तक मौन बैठी उसे देखती रही। उसने सोचा, चिन्ता के खिंचाव से तो यह मौन अच्छा है-सामने तो रहते हैं!
खेत बह गए, बस्ती के लोग चले गए, उनकी सहानुभूति चली गई, उनका नन्हा-सा निर्माण किया हुआ संसार उजड़ गया; परन्तु उसे इनकी चिन्ता न थी।
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