ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'यह सत्य है, पर क्या ये पराधीनता और दरिद्रता के बन्धन टूटेंगे नहीं? क्या हम निरन्तर इस कठोरता और अन्याय को सहन करते चलेंगे?' माधवी ने विनोद के माथे पर आई हुई लट को सुलझाते हुए कहा।
'नहीं, समय सदा एक-सा नहीं रहता। यह सामने देखते हो न! ब्रह्मपुत्र अभी तक क्रोध से फुँकार रही है।'
'यह तो सदा योंही फुँकारती रहेगी।'
'नहीं...मैं इसको बदल दूंगा। इसके दैत्यबल को सदा के लिए समाप्त कर दूँगा!' यह शब्द कहते समय विनोद की आँखों में एक विशेष निश्चय था और उसकी ध्वनि में एक दृढ़ता। माधवी ने इस पर वाद-विवाद करना उचित न समझा।
रजनिया ने चाय की ट्रे लाकर सामने रख दी। माधवी ने चाय बनाकर प्याला उसकी ओर बढ़ाया, परन्तु वह किसी गम्भीर विचार में डूबा रहा। वह एक इंजीनियर था। केवल कल्पनाओं में रहना उसने न सीखा था। उसका हर पग वास्तविकता की ओर उठता था। इस समय उसके मस्तिष्क में कम्पनी के अत्याचार और मज़दूरों की दशा न थी, बल्कि वह ऐसी बात सोच रहा था, जो आज तक किसी ने न सोची थी। शायद इस समय उसके विचारों का उपहास उड़ाया जाता, परन्तु उसकी दृष्टि किसी उज्ज्वल भविष्य को अपने विचारों में देख रही थी। वह विचार था एक बाँध का जो वह नदी पर बाँधना चाहता था। उसने जीवन में कई ऐसी नदियों पर पुल बाँध दिए थे जहाँ और सब विफल हो चुके थे। अब प्रश्न देश के भविष्य का था। यह प्रतिवर्ष का विनाश और इतने जल का व्यर्थ समुद्र में चला जाना...क्या कोई ऐसा उपाय नहीं कि यह पानी रोका जा सके और लहरों द्वारा ऊसर धरती तक पहुँचाया जाए...सिंचाई हो...बिजली उत्पन्न हो? पानी में जीवन है...पानी में विशाल शक्ति है...उसपर कैसे अधिकार किया जाए, कुछ ऐसे ही विचार उसके मस्तिष्क में उठ रहे थे।
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