ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
बस्ती के सैकड़ों व्यक्ति बाढ़ को देखने वहाँ आ ठहरे। किसी का कोई बस न चलता था। सब भगवान् से दया की प्रार्थना कर रहे थे; और कर भी क्या सकते थे।
देखते-देखते विनोद की वह ऊसर धरती जो उसने उपजाऊ बना दी थी, नदी की भेंट हो गई। नदी का पाट फैलता जा रहा था और सर्वत्र जल-थल हो रहा था। विशाल वृक्ष, तार के खम्भे, बड़ी-बड़ी चट्टानें और किनारों पर बसे हुए छोटे-छोटे मकान देखते ही देखते यों बह गए मानो किसी ने चुटकी भर के नदी में कुछ बहा दिया हो। वायुमण्डल में बहते हुए पानी के शोर के अतिरिक्त कुछ सुनाई न देता था।
विनोद बड़ी चिन्ता में था। इस महाकोप से बचने का उसे कोई उपाय न सूझता था। माधवी ने उसकी गम्भीरता और निराशा का अनुभव करते हुए उसका साहस बँधाया और बोली- 'इसमें उदास होने का क्या कारण?'
'इन बस्ती वालों का क्या होगा?'
'सब संभल जाएँगे। यह नदी की बाढ़ तो इनके जीवन के संग है। कई बार आई, इनको बेघर बनाकर चली गई।'
'नहीं माधवी, अब की इस बाढ़ ने तो मेरी आशाओं पर बिल्कुल पानी फेर दिया। तुम ही बताओ, यदि ये खेत न रहे तो मैं कम्पनी के विरुद्ध क्योंकर खड़ा हो पाऊँगा? उनके अन्याय के विरुद्ध कैसे लड़ूँगा? यह तो बड़ी कठोर पराजय हुई।'
'पराजय कैसी? तनिक-सी अकेली जान और पर्वत का सामना! तुमने तो अपना कर्तव्य निभा दिया, अपना सब-कुछ न्योछावर कर दिया और इस पर भी इन मूर्ख लोगों ने स्वयं को विदेशियों के हाथ बेच डाला। इनसे कोई असाधारण आशा नहीं रखनी चाहिए।'
'नहीं माधवी, यों मत कहो! वे लोग इनकी दरिद्रता का लाभ उठा रहे हैं। शताब्दियों से दबे हुए अशिक्षित व्यक्ति...धर्म का महत्त्व ही कहाँ रहता है। यों न होता तो आज पूरा देश पराधीनता के बोझ-तले क्यों कराह रहा होता? कौड़ी-कौड़ी पर मानव क्यों बिकता?'
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