ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
|
8 पाठकों को प्रिय 429 पाठक हैं |
'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'जी!'
'तुम समझती हो तुम्हारा यह धोखा मैं भूल जाऊँगा? तुम्हारी आँखों के आँसू मेरी ज्वाला को शांत कर देंगे? तुम यहाँ आनन्द से रह सकोगी? कदापि नहीं! तुमने मेरे हृदय पर छल से वार किया है-तुम भी आजीवन सुख न पा सकोगी।' विनोद ने क्रोध की अग्नि को कामिनी पर उगलकर अपने मन का बोझ हल्का करना चाहा। वह अपने स्थान से तनिक भी न हिली और सिर नीचे किए मौन खड़ी सुनती रही। उसकी आँखों से आँसू बहते रहे। जब वह मन का गुबार निकाल चुका तो कामिनी ने आँचल से आँसू पोंछते हुए सिर उठाया और बड़ी नम्रता से अपने पति को देखा। उसके मुख से हृदय की पीड़ा झलक रही थी।
कुछ क्षण खड़ी रहकर वह अपने कमरे की ओर जाने लगी। विनोद ने कठोर स्वर में उसे ठहरने को कहा और वह फिर वहीं खड़ी होकर उसकी बात सुनने लगी।
'तुमने अपने घर जाने से इन्कार कर दिया है?'
'जी।'
'क्यों?' बुलावा जो आया है...तुम्हें जाना ही चाहिए।'
'परन्तु मैंने कब इंकार किया?'
'तो जाओ!'
'आप संग चलिए, मैं तैयार हूँ।'
|