ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'मैं नहीं जानती...मैंने आपसे कोई छल नहीं किया। मुझे जाने दीजिए!' कान्ती ने क्रोध और घबराहट-भरे स्वर में कहा। यह कहकर एक झटके से वह विनोद से अलग हो गई और पागलों की भाँति कामिनी को पुकारती हुई सीढ़ियों की ओर भागी।
शोर सुनकर कामिनी अपने कमरे से बाहर आ गई। कुछ क्षण पश्चात् विनोद की भाभी भी वहाँ पहुंच गई। विनोद चुप एक कोने में खड़ा था। किसी ने उससे कुछ न पूछा जैसे सब एक-दूसरे के मन की बात समझ रहे हों।
विनोद सिर नीचा किए चुपचाप सोफे पर जा बैठा। कामिनी सीढ़ियों से नीचे उतरकर कान्ती को बाहर छोड़ आई। भाभी भी कान्ती के साथ बाहर चली गई और विनोद की ओर से उससे क्षमा-याचना करने लगी।
कामिनी जब कान्ती को छोड़कर लौटी तो असावधानी से उसकी ओर देखते हुए विनोद ने पूछा, 'छोड़ आईं अपनी चहेती सखी को?'
'जी...!' उसने दृष्टि झुकाकर धीमे से उत्तर दिया।
'आज तो बच गई फिर यहाँ आई तो जीवित न छोड़ूँगा।'
'इसमें उस बेचारी का क्या दोष? अपराध तो मेरा है, मुझे दण्ड दीजिए, कुछ न कहूँगी।'
'तो तुमने मुझे धोखा क्यों दिया?'
'मेरी पलकों के आँसू वह न देख सकी...जो भी देखने आया, मेरी सूरत देखकर ठुकराकर चलता बना। किसी ने भी इस हृदय को परखने का प्रयत्न न किया तो एक दिन, जब आपके घरवालों से मेरी बात चली, तो...' वह कहती-कहती रुक गई। उसकी पलकों में थमे हुए आँसू बह निकले; परंतु विनोद पर इसका कुछ प्रभाव न हुआ और उसने घृणा से मुँह मोड़ते हुए उसकी बात पूरी कर डाली-'तो कान्ती ने कामिनी का अभिनय करके हमसे हाँ करवा ली!'
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